International Journal of Innovative Research in Engineering & Multidisciplinary Physical Sciences
E-ISSN: 2349-7300Impact Factor - 9.907

A Widely Indexed Open Access Peer Reviewed Online Scholarly International Journal

Call for Paper Volume 12 Issue 2 March-April 2024 Submit your research for publication

पुराण और प्राचीन साहित्य - भक्तिकाव्य धारा

Authors: Dr Chiluka Pusphalata

DOI: https://doi.org/10.5281/zenodo.1400745

Short DOI: https://doi.org/gfkzw5

Country: India

Full-text Research PDF File:   View   |   Download


Abstract: सामान्यत: ' पुराण '  शब्द का अर्थ प्राचीन कथाओं के संग्रह से समझा जाता है | अमरकोशकार ने पुरातन और चिर नवीन स्वरूप की ओर संकेत करते हुए कहा है  -  
     पुराणे प्रतनप्रत्न  पुरातन चिरन्तनम् |
      प्रत्यगोअभिनवो नव्य नवीनों नूतनोंनव: || 

कतिपय पुराणों में भी शब्द की परिभाषा  देते हुए कहा गया है -
   सर्गश्च प्रतिसर्गश्त वंश मन्वन्तराणि च | 
   वंशानुचरितं चैन पुराण पंचलक्षणम् ||
अर्थात् जिस ग्रन्थ में सर्ग,  प्रतिसर्ग,  वंश,  मन्वनतर  तथा वंशानुचरित का वर्णन हो उसे पुराण कहा जाता है | किन्तु पुराणों में मात्र सर्ग,  प्रतिसर्ग,  अथवा राजवंशावली का वर्णन ही नहीं है  वरन हमारी संस्कृति, हमारा  सम्पूर्ण लौकिक एवं धार्मिक जीवन सन्निहित है | 
     भारत मुख्यतः  धर्मप्रधान देश है | अतः तद्नुरूप प्राचीन भारतीय साहित्य  का विकास  भी धार्मिक रूप में  हुआ है | इसके अतिरिक्त साहित्यकों का दृष्टिकोण आदेशात्मक था | एक ओर उनके जीवनदर्शन का एक रूप उनकी धर्मसाधना थी,  दूसरी ओर लौकिक जीवन में भी उदात्त  मानवीय गुणों को ही महत्ता मिली थी | परिणामस्वरूप संस्कृत साहित्य में केवल उदात्त चरित्र ही नाटक तथा महाकाव्य के नायक बन सकते थे| संस्कृत साहित्य में पुराणों की कथाएं को माध्यम बना कर नाटक तथा काव्य ग्रन्थ रचना की व्यापक परम्परा वर्तमान है |

Keywords: आदिकाल साहित्य, भक्तिकाव्य धारा, रीतिकालीन प्रवृत्तियों


Paper Id: 205

Published On: 2018-08-16

Published In: Volume 6, Issue 4, July-August 2018

Cite This: पुराण और प्राचीन साहित्य - भक्तिकाव्य धारा - Dr Chiluka Pusphalata - IJIRMPS Volume 6, Issue 4, July-August 2018. DOI 10.5281/zenodo.1400745

Share this