धर्म एवं संस्कृति संबंधी प्रेमचन्द के विचार
Authors: Dr. Lila Ram
Country: India
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Abstract: धर्म शब्द संस्कृत के ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ जो धारण किया जाये। जब क्या धारण किया जाये यह स्पष्ट हो जाए तो वह धर्म बन जाता है। धर्म एक प्रकार के कर्तव्य के द्वारा कुछ समाजोपयोगी तथा आत्मोपयोगी बातों या गुणों को धारण करना कहा जा सकता है। पौराणिक काल में धर्म एक ऐसा आचरण था जिसके द्वारा मानव सभ्यता न्यायपूर्ण जीवन को अपनाऐ और जिसके द्वारा मानवता फले-फूले, उसे धर्म कहा जाने लगा, लेकिन समय हमेशा परिवर्तनशील स्वभाव का होता है। उस बदले हुए समय के चक्र काल ने धर्म दर्शन की परिभाषाऐं ही बदल कर रख दी। धर्म दर्शन के संदर्भ में जो विचार मानवीय विवेक, कर्तव्य बोध, सत्कर्म, सदाचार और न्याय की व्यवस्था पर आधारित थे, वे विचार ही सम्प्रदाय विशेष में कब बदल गए मानव सभ्यता को पता ही नहीं चला। इस तरह धर्म दर्शन का विचार ही अपने मूल अर्थ से कट गया। कुछ दशकों में तो धर्म दर्शन का विचार दिशाहीनता की तरफ चला गया। इस तरह मानव सभ्यता ने धर्म दर्शन के उस सात्विक आचरण को ही दिशाहीन कर दिया, जो किसी समय श्रद्धा का विषय रहा था। प्रेमचन्द धर्म दर्शन के उस सात्विक आचरण के पक्षधर थेे। उन्होंने धर्म दर्शन के दिशाहीन रूप को महत्व नहीं दिया। वे तो धर्म दर्शन के उस सात्विक आचरण के पक्षधर बने जिसके द्वारा मानवता की रक्षा और उसका कल्याण हो सके। धर्म दर्शन के संदर्भ पर वे लिखते हैं-“धर्म नाम है उस रोशनी का, जो कतरे को समुद्र में मिल जाने का रास्ता दिखाती है, जो हमारी जात को इमाओस्त में, हमारी आत्मा को व्यापक सर्वात्मा में मिले होने की अनुभूति या यकीन कराती है।”
Keywords:
Paper Id: 230535
Published On: 2023-09-07
Published In: Volume 11, Issue 5, September-October 2023
Cite This: धर्म एवं संस्कृति संबंधी प्रेमचन्द के विचार - Dr. Lila Ram - IJIRMPS Volume 11, Issue 5, September-October 2023.